पूजा
पूजा के बारे में आपको एक बात समझनी होगी के बिना आत्मसाक्षात्कार के पूजा का कोई अर्थ नही है, क्योंकि फ़िर आप 'अनन्य' नही होते। मतलब आपको पहले 'पूर्ण' को जानना हैं। श्री कृष्ण ने भक्ति का वर्णन 'अनन्य भक्ति' किया है। उन्होंने कहा "मैं आपको अनन्य भक्ति प्रदान करूँगा"। उन्हें अनन्य भक्ति ही चाहिए। 'अनन्य' मतलब उसके अन्य दूसरा कुछ नही, मतलब जब आप आत्म-साक्षात्कारी होते हैं। अन्यथा वे कहते है "पुष्पं, फलं, तोयम - फूल, फल, जल जो भी देंगे आप - में स्वीकार करूँगा।" लेकिन जब देना ही हैं तो, वे कहते हैं की "आपको मेरे पास अनन्य भक्ति से ही आना होगा", मतलब "जब आप मेरे से एकाकार हो जाए" तभी आपकी भक्ति हैं, उसके पहले नही। उसके पहले आप उनसे जुड़े ही नही होते।
- श्री माताजी निर्मला देवी(१९/०७/१९८०, United Kingdom)
September 18, 2008 at 12:33 PM
बहुत बहुत धन्यवद्! आपने हिन्दी में सहज ज्ञान ब्लाग की शुरूवात की। हिंदी हम भारतियों की मातृभाषा है। और माँ की भाषा को बच्चा ही अच्छी तरह से समझ सकता है। और गहराई में उतर सकता है। आपने सटीक और सरल अनुवाद किया है। आश है कि आगन्तुक गण इसका आनंद लेंगे।
हमारा अपना भी एक सपना था कि हिंदी में सहजयोग का ब्लाग हो या वेब-साइट हो। आपक् माध्यम से यह पूरा हो रहा है।
मातृप्रेम और धन्यवद
सी. ल. पटेल हैदराबाद