श्री आदिशक्ति ने किस प्रकार ब्रम्हांड का सृजन किया!
"जिस वातावरण को हम जानते हैं वह सारा का सारा बनावटी है। परन्तु जब आप उनके कार्य को समझ जाते हैं - पहला कार्य जो उन्होंने किया या हम कह सकते हैं, उनकी पहली अभिव्यक्ति हमारे बाएं पक्ष पर हैं। यह महाकाली कि अभिव्यक्ति हैं। तो वे महाकाली रूप में बाएँ और को आती हैं जहाँ उन्होंने श्री गणेशा का सृजन किया। श्री गणेशा का सृजन उनकी पावनता, अबोधिता और मंगलमयता के कारण किया गया। ब्रम्हांड का सृजन करने से पूर्व आदिशक्ति को श्री गणेशा का सृजन करना पड़ा। श्री गणेशा का सृजन करके वो स्थापित हो जाती हैं। तत्पश्चात वे ऊपर कि और गईं, निःसंदेह विराट के शरीर में और वहां गोलाकार घूमकर दूसरी और दाएं पक्ष में गईं जहाँ उन्होंने सभी भुवनों - 'ब्रम्हांड' का सृजन किया। भुवन चौदह हैं अर्थात एक भुवन कैन ब्रम्हान्डो के बराबर होता हैं। इन सब चीजों का सृजन वे दाई ओर पर करती हैं। तब ऊपर जाकर वे पुनः निचे कि ओर आती हैं और इन सभी चक्रो - आदि चक्रो या पीठों का सृजन करती हैं। निचे आकर वे इन सभी पीठो को बनती हैं और फ़िर कुण्डलिनी रूप में इनमें स्थापित हो जाती हैं यद्यपि कुण्डलिनी उनका एक हिस्सा मात्र है। बाकि का कार्य इससे कहीं अधिक हैं। तो यह सारी अवशिष्ट उर्जा - कहने का अभिप्राय ये है कि यह सारी यात्रा करने के पश्चात् वह वापिस आती हैं और कुण्डलिनी रूप में उतर जाती हैं।
इस कुण्डलिनी और चक्रो के कारण वह शरीर के अंदर एक ऐसा क्षेत्र बनती हैं जिसे हम चक्र कहते हैं। ये चक्र वे सर्वप्रथम सर में बनाती हैं, इन्हे हम चक्रों की पीठ का नाम देते हैं, और फ़िर नीचे की ओर आकर उन चक्रों का सृजन करती हैं जो विराट के शरीर में हैं। जब ये सारा कार्य हो जाता है तो वे मानव का सृजन करती है, परन्तु सीधे से (direct) नहीं - विकास प्रणाली के माध्यम से। वे विकास प्रणाली से गुजरती हैं और इस प्रकार से उत्क्रांति आरम्भ होती हैं। जल में छोटे से जीवाणु की उत्पत्ति होती है और उससे विकास प्रक्रिया आगे बढती है। तो जब वे जल का सृजन करती हैं और ब्रम्हान्डो का सृजन करती है तो इस सारी विकास लीला को करने के लिए पृथ्वी माँ को ही चुनती हैं तथा पृथ्वी पर ही इस सूक्ष्मदर्शी अणु की रचना करती हैं।"
- परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी
(कबैला, इटली, २६/०६/१९९८)
इस कुण्डलिनी और चक्रो के कारण वह शरीर के अंदर एक ऐसा क्षेत्र बनती हैं जिसे हम चक्र कहते हैं। ये चक्र वे सर्वप्रथम सर में बनाती हैं, इन्हे हम चक्रों की पीठ का नाम देते हैं, और फ़िर नीचे की ओर आकर उन चक्रों का सृजन करती हैं जो विराट के शरीर में हैं। जब ये सारा कार्य हो जाता है तो वे मानव का सृजन करती है, परन्तु सीधे से (direct) नहीं - विकास प्रणाली के माध्यम से। वे विकास प्रणाली से गुजरती हैं और इस प्रकार से उत्क्रांति आरम्भ होती हैं। जल में छोटे से जीवाणु की उत्पत्ति होती है और उससे विकास प्रक्रिया आगे बढती है। तो जब वे जल का सृजन करती हैं और ब्रम्हान्डो का सृजन करती है तो इस सारी विकास लीला को करने के लिए पृथ्वी माँ को ही चुनती हैं तथा पृथ्वी पर ही इस सूक्ष्मदर्शी अणु की रचना करती हैं।"
- परम पूज्य माताजी श्री निर्मला देवी
(कबैला, इटली, २६/०६/१९९८)
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