विशुद्धि चक्र
स्वर : प
ग्रह : शनि
वार : शनिवार
तत्त्व : आकाश तत्त्व
राग : जयजयवंती
गुण : संपर्क कुशलता, सत्यनिष्ठ, व्यवहार कुशलता, विनम्रता, कूटनितिज्ञता, माधुर्य, साक्षीभाव, सभी के लिए निरासक्त प्रेम
नियंत्रित अंग : मुँह, कान, नाक, दात, जिह्वा, मुखाकृति, ग्रीवा तथा वाणी
विराजमान देवता :
मध्य अनाहत : श्री राधा-कृष्ण
दायाँ अनाहत : श्री विट्ठल-रखुमाई और यशोदामाता
बाया अनाहत : श्री विष्णुमाया
मेरुरज्जु के ग्रीवा क्षेत्र (Neck Region) में स्थापित सोलह पंखुडियों वाला ये चक्र विशुद्धि चक्र कहलाता हैं। यह ग्रीवा चक्र (Cervical Plexus) के अनुरूप है जो नाक, कान, गला, गर्दन, दात, जिह्वा, हात एवं भाव भंगिमाओं (Gestures) आदि के कार्यों को नियमित करता हैं। ये चक्र अन्य लोगों से संपर्क के लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि इन्ही अंगो के माध्यम से हम अन्य लोगों से संपर्क स्थापित करते हैं।
शारीरिक स्तर पर यह गल-ग्रंथि (Thyroid) के कार्य को नियंत्रित करता हैं। कटुवाणी, धुम्रपान, बनावटी व्यवहार एवं अपराध-भाव इस केन्द्र को अवरोधित करते हैं।
कुण्डलिनी जब इस चक्र का भेदन करती है तो व्यक्ति अपने व्यवहार में अत्यन्त सत्यानिष्ट, कुशल एवं मधुर हो जाता है और व्यर्थ के तर्क-वितर्क में नहीं फंसता। बिना अहम् को बढ़ावा दिए परिस्थितियों पर नियंत्रण करने में वह अत्यन्त युक्ति-कुशल हो जाता हैं।
ग्रह : शनि
वार : शनिवार
तत्त्व : आकाश तत्त्व
राग : जयजयवंती
गुण : संपर्क कुशलता, सत्यनिष्ठ, व्यवहार कुशलता, विनम्रता, कूटनितिज्ञता, माधुर्य, साक्षीभाव, सभी के लिए निरासक्त प्रेम
नियंत्रित अंग : मुँह, कान, नाक, दात, जिह्वा, मुखाकृति, ग्रीवा तथा वाणी
विराजमान देवता :
मध्य अनाहत : श्री राधा-कृष्ण
दायाँ अनाहत : श्री विट्ठल-रखुमाई और यशोदामाता
बाया अनाहत : श्री विष्णुमाया
मेरुरज्जु के ग्रीवा क्षेत्र (Neck Region) में स्थापित सोलह पंखुडियों वाला ये चक्र विशुद्धि चक्र कहलाता हैं। यह ग्रीवा चक्र (Cervical Plexus) के अनुरूप है जो नाक, कान, गला, गर्दन, दात, जिह्वा, हात एवं भाव भंगिमाओं (Gestures) आदि के कार्यों को नियमित करता हैं। ये चक्र अन्य लोगों से संपर्क के लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि इन्ही अंगो के माध्यम से हम अन्य लोगों से संपर्क स्थापित करते हैं।
शारीरिक स्तर पर यह गल-ग्रंथि (Thyroid) के कार्य को नियंत्रित करता हैं। कटुवाणी, धुम्रपान, बनावटी व्यवहार एवं अपराध-भाव इस केन्द्र को अवरोधित करते हैं।
कुण्डलिनी जब इस चक्र का भेदन करती है तो व्यक्ति अपने व्यवहार में अत्यन्त सत्यानिष्ट, कुशल एवं मधुर हो जाता है और व्यर्थ के तर्क-वितर्क में नहीं फंसता। बिना अहम् को बढ़ावा दिए परिस्थितियों पर नियंत्रण करने में वह अत्यन्त युक्ति-कुशल हो जाता हैं।
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