अपने चित्त को मध्य में रखें  

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कपड़े के टुकड़े का एक अन्य उदाहरण लें। ये चित्त का द्योतक है। आत्म-साक्षात्कार से पूर्व यह सभी दिशाओं में पूर्णतः फैला हुआ होता है। कपड़े के टुकड़े को मध्य में अपनी एक उंगली से ऊपर की ओर उठाएं। क्या होता है। एक सीमा तक कपड़ा ऊपर को उठाता हैं और इस प्रक्रिया में या तो यह उंगली पर लिपट जाता है या उंगली के चहुँ ओर लटक जाता है। इसी प्रकार से जब कुण्डलिनी उठती है तो यह चित्त को ऊपर उठाती है, चित्त को सहस्रार तक ले जाती है जहाँ ब्रम्हचैतन्य के प्रकाश से चित्त ज्योतिर्मय हो उठता है। तत्पश्चात मध्य में यह सुषुम्ना नाडी पर या तो कुण्डलिनी के चहुँ ओर लिपट जाता है या लटक जाता है। आत्म-साक्षात्कार के पश्चात् हुआ यह कि बाह्य जगत में यहाँ कहीं भी हमारा चित्त फैला हुआ था वह अंदर कि ओर खिंच कर ज्योतिर्मय हो गया। यही वह अवस्था है। परन्तु वास्तव में हम मानव अपनी आदतों के गुलाम हैं। आदत कि वजह से हम अपने चित्त को स्थायी रूप से उस अवस्था में नहीं रहने देते। वास्तव में चित्त बाहर नहीं जाना चाहिए। यही एक साधारण अवस्था है जिसमें मैं स्वयं आपके अंदर रहना चाहती हूँ। आगे बढ़ने के लिए मैं आपको नाव में बिठा रही हूँ, परन्तु आप लोग अपना एक पैर पानी में डालकर लगातार मेरी सहायता का प्रतिरोध कर रहे हैं। आपका चित्त तुच्छ चीज़ों पर है, आप भली भाँती जानते है कि आपको पार करने के लिए मैं अंदर बैठी हुई हूँ परन्तु फ़िर भी आदतन आप अपनी टांग अडातें हैं। अब क्या आप मेरे कष्ट की कल्पना कर सकते हैं? कल्पना करें कि मुझे कैसे लगता होगा!


इसीलिए मै कहती हूँ कि सत्संग करें - अर्थात चित्त को मध्य में रखने के लक्ष्य से अन्य सहजयोगियों के साथ समय बिताएं। निरंतर अपने चित्त को मध्य में बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक हैं। आत्म-साक्षात्कार के पश्चात् दिव्या ऊर्जा प्राप्त करके हमारे बाएँ और दाएं की नादियों का तनाव समाप्त हो जाता हैं। तनाव-मुक्त होने पर चक्र और अधिक खुलते हैं। यह घटना चक्र (cycle) है। तब कुण्डलिनी के और अधिक तंतु ऊपर कि ओर उठते हैं। इस अवस्था में मध्य में बने रहने का गुण विकसित हो जाता है।



- परम पूज्य श्री माताजी निर्मला देवी
(२६,२७ फरवरी १९८७)

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श्री माताजी निर्मला देवी