'आनन्द' भिन्न प्रकार के होते हैं  

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निरानन्द का केवल वर्णन किया जा सकता है इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। जब पूर्णानन्द होता है न गम होता है। आपको प्रसन्नता या अप्रसन्नता का एहसास ही नहीं होता, ये तो अहं और प्रतिअहं के गुण हैं।


सहजयोग में ज्यों-ज्यों आप एक आनन्द से दूसरे आनन्द की ओर बढ़ते हैं, भिन्न प्रकार के आनन्द हैं। जैसे हम कह सकते हैं, आत्मा-आत्मा को अनुभव करके जो आनन्द आपको प्राप्त होता है, वह 'स्वानन्द' कहलाता हैं। इसका अर्थ ये है कि आप स्वयं अपनी आत्मा को अनुभव करते हैं और आपको आनन्द मिलता हैं। इसके बाद आप अन्य लोगों को साक्षात्कार देते हैं तो आपको 'परानन्द' प्राप्त होता है। परन्तु जब आपको अच्छे स्वास्थ्य, भौतिक उपलब्धियां आदि सभी कुछ मिलता है, पूर्ण संतोष प्राप्त होता हैं, तो ये 'ब्रम्हानन्द' है। और इस प्रकार से आप अपने अंदर उच्चातिउच्च आनन्द प्राप्त करने लगते हैं, क्योंकि आपकी नाडियाँ नए आयामों के लिए खुलने लगती हैं।


अतः आप कह सकते हैं कि श्रीकृष्ण के सार पर आपको कृष्णानन्द प्राप्त होता है जिसमें माधुर्य प्राप्त होता है। अपनी उदारता को जब आप देखते हैं तो आपको शिवानन्द मिलता है। बच्चों के साथ जब हम होते हैं तो हमें गणेशानंद प्राप्त होता है। सभी आनन्दो का वर्णन किया जा सकता है परन्तु निरानन्द का वर्णन नही किया जा सकता क्योंकि यह महामाया का आनन्द है। जब सभी आनन्द एकरूप होते हैं तो 'निरानन्द' होता है। अतः अहं और प्रतिअहं के लिए कोई स्थान नहीं है। जब पुरा सहस्रार खुल जाता है और परमात्मा के साथ पूर्ण एकरूपता के अतिरिक्त कुछ नहीं होता, सर में जब हर समय प्रकाश आता रहता है और यहाँ से प्रकाश बाहर निकलता रहता है - आपने मेरे फोटोओं में देखा है - मानो सहस्रार परमेश्वरी माँ का दूध पिने वाला बच्चा बन गया हो, आनन्द अपने अंदर आत्मसात कर रहा हो, और वही आनन्द पुनः बाहर प्रतिबिंबित हो रहा हो! ये इस प्रकार है जैसे लहरें तट पर पहुँचती हैं फ़िर वे वापिस आती हैं, पुनः वापिस जाती हैं और इस प्रकार से इनका एक प्रतिमान (Pattern) बन जाता है।


अब उस प्रतिमान से प्रवाहित होने वाले आनन्द को आप किस प्रकार वर्णन कर सकते हैं। निरानन्द के विषय में एक चीज़ है कि महामाया आपके बहुत करीब और बहुत दूर भी होती है, ये विशेषता है। पूर्ण निर्विचारिता, पूर्ण शान्ति, पूर्ण मौन होता है, आप सोचते बिल्कुल नहीं। ये मात्र मौन होता है जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि शब्द आनन्द-प्रवाह को तोड़ते हैं। वे इसे संभाल नहीं सकते।




- परम पूज्य श्री माताजी निर्मला देवी
(विएन्ना आश्रम, ०२/०५/१९८५)


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